बचपन....एक याद

कंचो की होड़ में , दोस्तों के साथ भागदौड़ में
बचपन रहता था बस चीज़ों की तोड़ फोड़ में
कुछ खेल हुवा करते थे...बर्फी,सीढ़ी और डमरू
भूतों की सुन लेते अगर कहानी तो कांप जाती थी रूह

बड़े उठाते गोद में, हम हंसकर आसमां छूआ करते थे
याद होगा शायद सबको एक टॉफी के लिए भी रूठा करते थे
न्यू पेंसिल रब्बर मानो एक मैडल सा लगता था
और सुबह उठकर स्कूल जाना एक सजा सा लगता था

दिवाली पर पकोड़ो की महक और होली पर बिखरे हुए रंग
अब याद आती है सक्रान्त कि वो घेवर-फिनी और डोर पतंग
राखी पर छोटी छोटी कलाइयों पर मोटी मोटी राखियां
झूम उठते थे , चाहे दूर ही, क्यों ना बजी हो ,शहनाइयां

दस तक गिनना होता था और हम सब छुप जाते थे
पकड़म-पकड़ाई में बड़ी मुश्किल से हाथ आते थे
धाक थी अपनी उस वक्त अपनी ना कोई कुछ कह पाता था
थोड़ी आँख भिगो लेते तो जो मांगो वो आता था

रस्ते पर पड़ा पत्थर मानो एक फुटबॉल सा लगता था
उसको घर तक पहुँचाना फाइनल गोल सा लगता था
राम-सीता और खाता हूं-पिता हूँ के मुक्के जब लगते थे
दर्द तो होता होगा पर वो मीठे लगते थे

उमर का पता नही बस लोग उसे बचपन कहते है
काम धाम कुछ रहता नहीं बस सब खेलते रहते है
ना कल की कोई फ़िक्र है रहती ना आज का कोई लफड़ा है
वो बचपन ही है जिसको पाना अब सबका सपना है

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